नई दिल्ली. सुप्रीम कोर्ट के चार सर्वाधिक वरिष्ठ न्यायाधीशों ने प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा को जो पत्र तकरीबन दो महीने पहले लिखा गया पत्र संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में मीडिया को जारी किया. इस पत्र का मूल पाठ इस प्रकार है:
प्रधान न्यायाधीश महोदय, गहरी व्यथा और चिंता के साथ हमने सोचा है कि आपको यह पत्र लिखना उचित है ताकि इस अदालत द्वारा सुनाए गए कुछ न्यायिक आदेशों को उजागर किया जा सके, जिसने न्याय प्रदान करने की प्रणाली के समूचे कामकाज और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है. साथ ही इसने प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय के प्रशासनिक कामकाज को प्रभावित किया है.
तीन उच्च न्यायालयों कलकत्ता, बंबई और मद्रास उच्च न्यायालय की स्थापना के साथ ही कुछ परिपाटियां सुस्थापित हैं. इन परिपाटियों को इस अदालत ने अपनाया, जो उपरोक्त अदालतों के तकरीबन एक शताब्दी बाद अस्तित्व में आया. इन परिपाटियों की जड़ें एंग्लो-सैक्सन विधिशास्त्र और प्रैक्टिस में हैं.
सुस्थापित सिद्धांतों में से एक यह है कि प्रधान न्यायाधीश कामकाज आवंटित करने में सर्वेसर्वा हैं और उन्हें रोस्टर तय करने का विशेषाधिकार है. ऐसा व्यवस्थित कामकाज और जिन मामलों या मामले से इस अदालत के सदस्य/पीठ को निपटना है उसके संबंध में उचित व्यवस्था के लिये कई अदालतों वाली व्यवस्था में इसकी जरूरत है.
रोस्टर तैयार करने और अदालत के विभन्न सदस्यों/पीठों को मामले आवंटित करने के प्रधान न्यायाधीश के विशेषाधिकार को मान्यता देने की परिपाटी अदालत के कामकाज को अनुशासित और कारगर तरीके से संचालित करने के लिये विकसित की गई है, लेकिन यह अपने साथियों पर प्रधान न्यायाधीश के उच्च प्राधिकार को कानूनी या तथ्यात्मक रूप से मान्यता नहीं देती है. इस देश के विधिशास्त्र में भी यह सुस्थापित है कि प्रधान न्यायाधीश अन्य न्यायाधीशों के बराबर ही होते हैं लेकिन अनौपचारिक रूप से उन्हें सम्मान दिया जाता है. इससे न तो कुछ अधिक या न ही इससे कुछ कम उनकी हैसियत होती है.
कामकाज आवंटित करने के संबंध में प्रधान न्यायाधीश का मार्गदर्शन करने के लिये सुस्थापित और चिर प्रचलित परिपाटी है. यह किसी मामले पर सुनवाई करने के लिये चाहे पीठ में कितने सदस्य होने चाहिये या उसकी संरचना कैसी होनी चाहिये उससे संबंधित परिपाटी हो. उपरोक्त सिद्धांत का आवश्यक परिणाम है कि इस अदालत समेत कोई भी अनेक संख्या वाला न्यायिक निकाय उन मामलों पर सुनवाई करने और फैसला सुनाने का प्राधिकार खुद नहीं हथिया लेगा जिसपर संरचनावार और संख्यावार उचित पीठ को सुनवाई करनी चाहिये.
उन दोनों नियमों से कोई भी विचलन संस्था की ईमानदारी के बारे में राष्ट्र के मन में शंका पैदा करेगी जिसके अप्रिय और अवांछित परिणाम होंगे. इस तरह के विचलन से होने वाली अव्यवस्था पर तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता. हमें यह कहते हुए दुख हो रहा है कि काफी समय से उपरोक्त नियमों का सख्ती से पालन नहीं किया जा रहा है. ऐसे कई दृष्टांत है जहां राष्ट्र और संस्था के लिये दूरगामी परिणाम वाले मामलों को इस अदालत के प्रधान न्यायाधीशों ने चयनात्मक आधार पर इस तरह के आवंटन के लिये बिना किसी तार्किक आधार के उनकी पसंद की पीठों को आवंटित किया है. किसी भी कीमत पर इससे रक्षा की जानी चाहिये.
संस्था के शर्मसार होने से बचने के लिये हम उनका उल्लेख नहीं कर रहे हैं लेकिन इस बात पर गौर करते हैं कि इस तरह के विचलन ने कुछ हद तक पहले ही इस संस्था की छवि को क्षति पहुंचाई है. उपरोक्त संदर्भ में हम 27 अक्तूबर 2017 को आर पी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में दिये गए आदेश की तरफ आपका ध्यान दिलाना उचित समझते हैं जिसमें कहा गया था कि व्यापक जनहित में मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) को अंतिम रूप देने में और विलंब नहीं होना चाहिये. सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन एवं अन्य बनाम भारत सरकार :(2016) 5 एससीसी 1: के अनुसार जब एमओपी पर इस अदालत की संविधान पीठ को फैसला सुनाना था तो यह समझना मुश्किल है कि कैसे कोई अन्य पीठ इस विषय पर सुनवाई कर सकती है.
उपरोक्त हिस्से पर संविधान पीठ के फैसले के बाद :मुझ समेत: कॉलेजियम के पांच न्यायाधीशों ने विस्तृत चर्चा की और एमओपी को अंतिम रूप दिया गया और तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ने मार्च 2017 में भारत सरकार को भेजा. भारत सरकार ने पत्र का जवाब नहीं दिया है और इस मौन के मद्देनजर यह अवश्य समझा जाना चाहिये कि कॉलेजियम ने जो एमओपी तय किया था उसे सरकार ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड :पूर्व में उल्लिखित: मामले में इस अदालत के आदेश के आधार पर स्वीकार कर लिया है. इसलिये, एमओपी को अंतिम रूप देने या इस मुद्दे को अनिश्चितकाल तक नहीं खींचा जा सकता है इस बारे में टिप्पणी करने का कोई अवसर नहीं था.
चार जुलाई 2017 को इस अदालत की सात न्यायाधीशों की पीठ ने माननीय न्यायाधीश सी एस कर्णन :(2017) 1 एससीसी 1: में फैसला सुनाया था. उस फैसले में आर पी लूथरा मामले में उल्लिखित हममें से दो ने कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करने और महाभियोग के अलावा सुधारात्मक उपायों के लिये एक तंत्र स्थापित करने की जरूरत है. सात में से किसी भी न्यायाधीश ने एमओपी के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की थी.
एमओपी के बारे में किसी भी मुद्दे पर चर्चा मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में होनी चाहिये और पूर्ण अदालत द्वारा होनी चाहिये. इतने महत्वपूर्ण मामले पर अगर न्यायिक पक्ष को विचार करना है तो इसपर संविधान पीठ के अलावा किसी और को विचार नहीं करना चाहिये. उपरोक्त घटनाक्रम को गंभीर चिंता के साथ देखा जाना चाहिये. माननीय प्रधान न्यायाधीश हालात में सुधार करने के लिये कर्तव्य से बंधे हैं और कॉलेजियम के अन्य सदस्यों के साथ पूर्ण चर्चा और जरूरत पड़ने पर बाद में इस अदालत के अन्य माननीय न्यायाधीशों के साथ चर्चा के बाद उचित उपचारात्मक कदम उठाएं.
एक बार जब आप आर पी लूथरा बनाम भारत सरकार मामले में 27 अक्तूबर 2017 के आदेश से पैदा हुए मुद्दे का पर्याप्त निराकरण कर देते हैं और अगर यह उतना जरूरी हो जाता है तो हम इस अदालत द्वारा दिये गए अन्य न्यायिक आदेशों से विशेष रूप से आपको अवगत कराएंगे. उनसे भी उसी तरह से निपटने की जरूरत होगी. भवदीय न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ.