नई दिल्ली. गुजरात चुनाव में कांग्रेस को जिन 3 नेताओं को साथ लाने में अपनी बढ़त दिखाई दे रही थी, वो हैं हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी. ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर कांग्रेस के साथ आ चुके हैं. पटेल नेता हार्दिक पटेल के साथ पार्टी पर्दे के पीछे बातचीत कर रही है लेकिन दलित नेता जिग्नेश मेवाणी उससे दूर छिटक गए हैं. ऊना कांड के बाद राजनीति के केंद्र में आए मेवाणी अचानक कांग्रेस से दूर क्यों चले गए, इसकी वजह खुद कांग्रेस तलाश रही है. लेकिन अब जब चुनावी रणनीति को पार्टी अमलीजामा पहनाने में देर नहीं होने देना चाहती, मेवाणी का फैसला उसके लिए अच्छा साबित नहीं होने जा रहा है. आइए हम वो वजहें तलाशते हैं जो जिग्नेश मेवाणी के कांग्रेस के साथ न जाने के फैसले के पीछे हो सकती हैं-
कांग्रेस से बिगड़ी बातः गुजरात चुनाव में कांग्रेस अल्पेश को साथ लाने के बाद हार्दिक पटेल के साथ बातचीत में जुटी है. जिग्नेश मेवाणी गुरुवार को दिल्ली में थे. बताया गया कि वह कांग्रेस के बड़े नेताओं से मुलाकात करेंगे लेकिन उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से मुलाकात नहीं की बल्कि ऐन मौके पर ऐलान भी कर दिया कि वह कांग्रेस में शामिल नहीं होने जा रहे हैं. राजनीतिक विशेषज्ञों की मानें तो कांग्रेस जिग्नेश को उनकी शर्तों पर पार्टी के साथ लाने में नाकाम रही और दोनों के बीच आखिरी वक्त में बात बनते बनते बिगड़ गई.
आम आदमी पार्टी पर दांवः जिग्नेश मेवाणी के गुजरात में बढ़ते कद के बीच ये भी खबर आई कि 2019 के चुनाव में वह आम आदमी पार्टी (AAP) का प्रमुख चेहरा हो सकते हैं. अब अगर मेवाणी के पास किसी पार्टी का प्रमुख चेहरा बनने का विकल्प हो तो भला वह ऐसे दल में क्यों जाएंगे जहां पहले से बड़े नेताओं की फौज खड़ी है. ऐसी जानकारी है कि AAP में जाने का पक्ष जिग्नेश के फैसले पर हावी रहा और उन्होंने कांग्रेस से दूरी बना ली.
संगठन को महत्वः राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के संयोजक जिग्नेश मेवाणी कभी नहीं चाहेंगे कि कांग्रेस का हाथ थामकर वह अपने संगठन को कमजोर होने दें. कांग्रेस में जाने से संगठन के साथ जुड़ी जिग्नेश की पहचान धूमिल पड़ जाती. जबकि मेवाणी अपने संगठन का फैलाव गुजरात ही नहीं बल्कि दूसरे राज्यों की दलित आबादी के बीच भी करना चाहते हैं. यह निश्चित ही दोनों के बीच टकराव को जन्म देने की वजह बन जाती.
2017 से आगे की पॉलिटिक्सः जिग्नेश मेवाणी की नजर गुजरात विधानसभा चुनाव 2017 से आगे है. 2017 में वह बढ़ रहे हैं लेकिन फिलहाल प्रबल भूमिका में नहीं हैं. गुजरात में दलितों की आबादी करीब आठ फीसदी है. मेवाणी इस कोशिश में लगे हैं कि उनकी छवि दलितों के अलावा दूसरे समुदायों में भी बने ताकि उनका जनाधार और मजबूत हो और 2019 में या उससे आगे वह और बड़ी भूमिका में उभर सकें.
दलित वोट की अहमियतः गुजरात में कांग्रेस के साथ मुस्लिम वोट बैंक बड़ी संख्या में है, अहमद पटेल जैसे बड़े मुस्लिम नेता का चेहरा कांग्रेस के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकता है. राज्य की दो ध्रुवीय राजनीति में कांग्रेस पटेल वोटबैंक को अपने साथ लाने की मुहिम में जुटी हुई है. दलित वोट बैंक की भी राज्य में अहमियत है लेकिन कांग्रेस उसपर भरोसा नहीं कर सकती. राज्य में दलित उत्पीड़न की कथित खबरों के बाद मायावती के दौरे ने बीएसपी को भी उनके नजदीक लाने का काम किया है. छोटे-मोटे और भी कई दलितों से संबंधित दल इस वोट बैंक पर नजरें गड़ाए हैं. ऐसे में कांग्रेस जिग्नेश को साथ लाकर इस पूरे वोट को मिलने की बात पर भरोसा नहीं कर सकती है.