“पुराने कपड़े देदो, नए बर्तन लेलो”- मेरे बचपन की माई

लेखक: प्रोफेसर प्रीतम शर्मा

अतीत की याद करता हूं तो मेरे कानों में यह आवाज आज गूंजती है। याद आती है उस देवी की जो हमारे मोहल्ले में सिर पर एक बड़ी डलिया रखे हुए आती थीं जिसमें चमकते हुए सुंदर स्टील के बर्तन होते थे और कंधे पर एक झोली जिसमे पुराने कुछ कपड़े।

यह देवि पुराने कपड़ों के बदले स्टील के नए बर्तन दिया करती थीं। मैं उस समय छोटा था और समझ नहीं पाता था कि पुराने उपयोग किए हुए कपड़े, जिनको हम फेंकना चाहते है, उन्हें लेकर यह माई इतने सुंदर स्टील के बर्तन क्यों दे रही है? इसे मैं व्यवसाय कहूं या सेवा? समझ नहीं पाता था।

बढ़े होकर इंजीनियरिंग की डिग्री पास की, और ४ वर्षो तक इंजीनियरिंग कॉलेज में अध्यापन कर, नेशनल स्कॉलरशिप पर विदेश में पढ़ने इंग्लैंड गया। उन दिनों आज के युग की सुविधाएं नहीं थी। ना गूगल था नाही मोबाइल फोन। सुना ही था कि इंग्लैंड में बहुत ठंड पड़ती है। सोचा कि गरम सूट से काम चल जाएगा। वहां पहुंचने पर पता लगा कि ठंड क्या होती है। मुझे मेरे सहपाठियों ने बताया कि आपको ओवरकोट लेना चाहिए तभी ठंड से बचोगे।

फिर क्या था पहले शनिवार को बाजार में अपने एक अंग्रेज मित्र के साथ एक बड़ी दुकान पर गए। देख के थोड़ा सहम गए कि ओवरकोट बहुत महंगा था, लगभग ३०-३५ पाउंड, जो उस समय के अनुसार मुझ जैसे छात्र के लिए आउट ऑफ पॉकेट कहा जाए तो गलत न होगा।

अब क्या किया जावे। मेरे अंग्रेज मित्र ने कहा कि मैं आपको एक और बाजार में ले चलता हूं। वहां अच्छे अच्छे ओवरकोट खुले बाजार में मिल रहे थे। और कीमत चौंकाने वाली २ या ३ पाउंड । मुझे जब ये बताया गया कि सभी छात्र यही से ओवरकोट आदि आवश्यक वस्त्र खरीदते है। मैं खुश हुआ और यह जाना कि यह ओवरकोट एवं अन्य वस्त्र उपयोग किए हुए हैं। लेकिन अभी भी सुंदर एवं उपयोगी हैं। मैने अपनी पसंद का ओवरकोट लिया और बड़ी शान से पहना। ठंड का अता पता भी न रहा।

लौटते समय मुझे बचपन की ‘कपड़े देदो, स्टील के बर्तन लेलो’ वाली माई की याद ताज़ा हो गई। अव समझ में आया कि मेरे बचपन की कपड़े वाली माई एक व्यवसाय नहीं एक बड़ी सेवा कर रही थी, उनकी जो बढ़ी बढ़ी दुकानों से अपने वस्त्र नहीं खरीद सकते। घर घर से उपयोग किए हुए कपड़े लेकर उन लोगों तक पहुंचने का पुण्य कार्य कर रही थी जो सेवा भी है, छोटा सा सोशल बिजनेस भी और मां प्रकृति के संरक्षण के लिए अपना सामर्थ योगदान भी। साथ ही यह बताना भी आवश्यक है कि उस जमाने में early 1960s मै आम आदमी के घर में वर्तन बहुत कम होते थे । उसमें भी स्टील के बर्तन लक्जरी थे। आज शायद यह अचंभा लगे पर यह सच्चाई है। लेकिन यह नही भूलना चाहिए कि उस समय हवा शुद्ध थी, पानी पवित्र था। शुद्ध प्राण वायु और पवित्र शुद्ध जल गरीब और अमीर सबके लिए पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध था। हमारी पवित्र नदियां अमृत के जल धारा थीं। गरीब और अमीर सभी स्वस्थ थे और सुखी भी। धरती मां के सभी अपने को पुत्र पुत्री मानते थे।

आज जब पर्यावरण के परिवर्तन की भयावह समस्या के समाधान, तथा हवा और पानी के भयावह प्रदूषण से युद्ध स्तर पर कार्य किए जाने की आवश्यकता है, हमें हमारे समाज के हर वर्ग को , स्कूलों में, कॉलेजों में, यूनिवर्सिटीज में सर्कुलर इकॉनमी, Circular Economy, की सफलता के लिए Reuse, Repair, Recycle और Remanufacture की जोरदार पहल करनी होगी।

मुझे इस बात की अत्यन्त प्रसन्नता है समाज एवं प्रकृति कि सेवा काने वालीं माई आज भी नजर आती है अपने परंपरागत सेवा रूपी व्यवसाय करते हुए।
यह भी प्रसन्नता का विषय है कि आज की युवा पीढ़ी भी इस पुण्य कार्य को NGOs के साथ मिलकर पुरानी एवं उपयोग की हुई चीजों को एकत्रित कर उन्हें पुनः उपयोग के लिए जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने का पुण्य कार्य कर रही है।

आने वाले समय में आधुनिक विज्ञान पर आधारित सस्टेनेबिलिटी साइंस एवं सस्टेनेबिलिटी टेक्नोलॉजीज को पूरी लगन एवं मेहनत से विकसित करना होगा।

यह पुण्य कार्य विश्वविद्यालयों में कार्यरत रिसर्च स्कॉलर्स और शोध कार्यों में जुटे शिक्षकों को करना है। तब ही सही अर्थों में हम पर्यावरण पर पड़ रहे दूषित प्रभावों से बच सकते है। बिजनेस को सेवा बना सकते हैं और मां धरती एवं प्रकृति की सच्ची सेवा कर सकते हैं। इस पुण्य कार्य में हमारे विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में विशेष पहल आवश्यक है।
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लेखक प्रोफेसर प्रीतम शर्मा एक सम्मानित शिक्षा शास्त्री है जो DTU एवं RGPV के संस्थापक कुलपति रहे है। भारतीय विश्वविद्यालय संघ के अध्यक्ष रहे है, शोध एवं नवाचार के जाने माने विशिष्ठ एक्सपर्ट है। पर्यावरण के प्रहरी है और सस्टेनेबिलिटी के प्रणेता है। वर्तमान में एमिटी यूनिवर्सिटी गुरुग्राम के कुलपति है। इस लेख में व्यक्त विचार उनके निजी विचार है।