प्राकृतिक संसाधनों पर शोध करने वाली अमेरिकी संस्थान ‘वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीटयूट’ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के 37 देश पानी की भारी किल्लत से गुजर रहे हैं। इनमें सिंगापुर, पश्चिमी सहारा, कतर, जमैका, बहरीन, सऊदी अरब और कुवैत समेत 19 देश ऐसे हैं जहाँ पानी की आपूर्ति मांग से बेहद कम है। भारत इन देशों से सिर्फ एक पायदान पीछे है। 32 भारतीय शहरों में से 22 शहर पानी की किल्लत से गुजर रहे हैं। 11 अरब लोग वैश्विक तौर पर स्वच्छ पेयजल की पहुँच से बाहर हैं। 05 में से एक व्यक्ति की पेयजल तक पहुँच नहीं है। भारत की 250 अरब घनमीटर तक पानी की भंडारण क्षमता है। 70 प्रतिशत लोग जहरीले पानी की वजह से त्वचा संबंधी बीमारियों से जूझ रहे हैं। 30 प्रतिशत लोग असाध्य रोगों की चपेट में हैं। गंगा, यमुना, कृष्णा, कावेरी जैसी नदियों में रसायन गिर रहा है। जिससे वे प्रदूषित हो रही है।
क्या कहता है केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड-केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार 275 नदियों के 302 प्रखंड, शहरी और औद्योगिक कचरे के कारण प्रदूषित हैं। 37 हजार एम.एल.डी. अशोधित सीवेज नदियों में प्रवाहित होता है। नदियों के प्रदूषित होने से पशु पालन पर भी असर पड़ा है। दूषित पानी के चलते जानवर समय से पहले मरने लगे हैं। यहाँ तक कि गाँव के गाँव पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं। गाँवों में तेजी से कैंसर, एलर्जी, पथरी, रसौली, टयूमर, बांझपन और अन्य त्वचा रोग पैर पसार रहे हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बहने वाली हिंडन, काली एवं कृष्णा नदी इसका जीता जागता उदाहरण हैं।
गंगा का उद्गम-गढ़वाल से हिमालय के गंगोत्री ग्लेशियर से भागीरथी नाम से गंगा की मुख्यधारा आगे दो धाराओं मंदाकिनी और अलकनंदा में बंटती है। देवप्रयाग में दोनों धारायें फिर से एक होकर ‘गंगा’ नाम से आगे बढ़ती हैं। गंगा से कई उपनदियां जैसे यमुना, रामगंगा, घाघरा, सोन, दामोदर और सप्तकोसी निकलती हैं। करीब 2525 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद गंगा बंगाल की खाड़ी में समुद्र से मिल जाती है। देश की 40 फीसदी जनसंख्या वाला गंगा का बेसिन सबसे बड़ा बेसिन है।
गंगा के पेट में 6334 मिलियन लीटर गंदा पानी-दुर्भाग्य है कि गंगा 75 प्रतिशत नगर निकाय के कचरे और 25 प्रतिशत औद्योगिक कचरे से प्रदूषित होती है। गंगा बेसिन के पाँच राज्यों से प्रतिदिन 7,300 मिलियन लीटर गंदा पानी गंगा में गिरता है। इसको साफ करने के लिये वर्तमान में 2.126 मिलियन लीटर के एस.टी.पी. हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद 6,334 मिलियन लीटर गंदा पानी गंगा में प्रवाहित हो जाता है। अब छोटी नदियां सुधरेंगी, तभी गंगा स्वच्छ होगी। काशी आते-आते गंगा में बहुत बड़ी जलराशि दूसरी नदियों की होती है। छोटी नदियां ही बड़ी नदियों को समृद्ध करती हैं। एक बड़ा उदाहरण है इटावा के आगे पंचनंदा का, जहाँ साफ पानी वाली चंबल, यमुना के गंदे पानी से मिलकर प्रदूषित हो जाती है, मगर दूसरी तरफ यमुना का प्रदूषण कुछ कम हो जाता है। चंबल औद्योगिक क्षेत्र के बगल से नहीं गुजरती इसलिये स्वच्छ है। नदियों के अमूल्य पानी को सुरक्षित करने के लिये सरकार नमामि गंगा प्रोजेक्ट के साथ-साथ अन्य कई प्रोजेक्ट पर काम कर रही है।
जल संरक्षण के लिये उठाए जा रहे कदम
1.जल संचयन-केवल सरकारी भागीदारी व प्रयास से ही नहीं वरन जन-जन की भागीदारी भी आवश्यक है। तभी जल के व्यवसाय को रोका जा सकता है तथा जल संरक्षण में सफलता पाई जा सकती है। वैज्ञानिक परिभाषा में जल संग्रहण का अर्थ वर्षा जल बहने से रोकना है। भारत में वर्षा 1.170 मिमी यानी 46 इंच वर्षा वर्ष भर में होती है। यह वर्षा कम समय में तेज गति से होती है जिससे बारिश का पानी तेजी से बह जाता है, इसी वर्षा जल को जमीन के ऊपर या जमीन के नीचे एकत्रित करना तथा पुनः सीधे उपयोग में लाना ही वर्षा जल संरक्षण या संग्रहण कहलाता है। भूगर्भ में वर्षा जल पहुँचाने की व्यवस्था करना वर्षा जल संचयन कहलाता है। जल संचयन व्यवस्था में जमा पानी की मात्रा जलग्रहण क्षेत्र की बनावट और पानी भरने वाले टैंक के आकार पर निर्भर करता है। अतः पानी की आवश्यकता, बारिश और जलग्रहण की उपलब्धता के आधार पर ही टैंक का निर्माण करना होता है। अतः पानी के संकट से पार पाने का रामबाण उपाय वर्षा जल संचयन ही है।
2.मल्टीनेशनल कंपनियों पर लगाम-दूसरा देश में बढ़ते जल संकट के पीछे पानी का कारोबार करने वाली मल्टीनेशनल कंपनियां भी अहम भूमिका निभा रही हैं। ये कंपनियां एक ओर तो हमारे भूमिगत जल का अंधाधुंध दोहन करने में जुटी हैं, दूसरी तरफ भ्रम भी फैलाती हैं कि वे जितना पानी जमीन के अंदर से लेती हैं उतना ही वापिस छोड़ देती हैं, जबकि दोहन स्वच्छ जल का करती है और बदले में प्रदूषित जल जमीन में छोड़ती है। 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन द्वारा भूजल पर पंचायतों एवं स्थानीय निकायों को अधिकार दिया गया, वहीं दूसरी ओर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को पानी के दोहन की छूट दे दी गई। अतः सरकार को इस पर कड़ा कदम उठाने की आवश्यकता है।
3.पानी का समुचित प्रबंधन-तीसरी कमी पानी का प्रबंधन न होना है। हम बहुत से माडल शहरों से सबक ले सकते हैं जहाँ पानी का प्रबंधन बहुत अच्छा है। भोपाल के वाटर मैनेजमेंट से सबक ले सकते हैं भोपाल के पास पानी के रॉ वॉटर सोर्स नहीं है। वहाँ कोई नदी नहीं है। वहाँ के लोगों व सरकार ने पानी के हिसाब से रहना सीखा और वाटर मैंनेजमेंट किया। यहाँ बरसात के पानी को जमा करना सीखा फिर उसका उपयोग करना सीखा आज खुद सक्षम बन गये। चेन्नई पानी के लिये नदियों पर आर्श्रित नहीं है। यहाँ सरफेस वाटर का ज्यादा उपयोग होता है। मानसून में जलाशयों को भर लेते हैं। यहाँ सतही जल का जितना प्रयोग होता है उतना ही बरसात के दिनों में रिचार्ज कर देते हैं। नेताओं के पोस्टर से ज्यादा वाटर मैंनेजमेंट के पोस्टर होते हैं। यहाँ लोगों ने इसे चैलेंज के रूप में लिया और आज बेस्ट वाटर मैंनेजमेंट तंत्र रखते हैं। युगांडा और सेनेगल जैसे अफ्रीकी देशों ने जल प्रबंधन की व्यवस्था स्वयात्तशासी निकायों को सौंप दी है। इसकी देखरेख पूरी तरह प्रोफेशनल करते हैं। पानी बचाने का सबक सिंगापुर से सीखा जा सकता है। सिंगापुर समुद्र के जल को पीने योग्य बनाता है। उसने इमारतों व पुलों की बनावट इस प्रकार की है कि उसमें वर्षा का जल टिक सके। उसने उद्योगों को भी दूसरी जगह स्थापित कर दिया है।
4.नदियों को पुनर्जीवित करना-ऐसा नहीं है कि सभी स्तरों पर नदियों को लेकर उदासीनता छाई हुई है। समाज के कुछ ऐसे भी लोग हैं जो नदी संस्कृति को पुनर्जीवित करने के प्रयास में अनथक लगे हैं। देश की कई नदियों को पुनर्जीवित किया गया है। राजस्थान की कई सूखी नदियों में जलधारा बहाकर वहाँ की धरती को फिर से हरी-भरी करने का करिश्मा सबके सामने है। देश में दूषित हो रही नदियाँ आज हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है। पहले गंगा नदी के दोनों पाटों पर खेती के लिये कुंभ होते थे, जिनका मकसद होता था कि गंगा मां की देई में कोई अशुभ कार्य न होने पाये। जब से हमने नदी स्नान करने और सामूहिक पूजा-पाठ शुरू की है नदी का स्वरूप बदल गया है। नदी का नाम आते ही गंगा मां की पवित्र तस्वीर आँखों में आती है। अतः इसे पवित्र रखने के लिये सरकार को कठोर कदम उठाने चाहिये।
अंत में मैं अपील करता हूँ कि हम कम पानी खर्च करें तो शायद बच जायें, इसलिये बेहतर है कि समस्याओं को कोसने की जगह कुछ सटीक समाधानों को अपनाकर ही जल संकट को दूर किया जा सकता है। जब तक हम जलाधिकार के बारे में जागरूक नहीं होंगे और पीने के पानी की पर्याप्त व्यवस्था नहीं करेंगे, तब तक पानी के व्यवसायीकरण को नहीं रोक सकते। वर्तमान में भारत में पीने के पानी का व्यापार लगभग 70 हजार करोड़ रुपये है, जो बहुत ही जल्दी एक लाख करोड़ रुपये से भी अधिक का हो जाएगा। यह बड़ी चिन्ता का विषय है। पानी प्रकृति में व्याप्त सभी जीवों के जीवन का आधार है। जिसका व्यापार कभी किसी भी परिस्थिति में उचित नहीं ठहराया जा सकता है।
‘‘जीवन का आधार है जल,
इस देह का सार है जल।
आज नही बचाओगे तो,
जी पाओगे कैसे कल?’’