चिकित्सा सेवा में बदलता स्वरूप: परोपकार एवं मानव सेवा से व्यवसाय बनने तक की यात्रा

By डॉ वीपी सिंह,
एचओडी – लेजर, लैप्रोस्कोपिक और जनरल सर्जरी,
धर्मशीला नारायण अस्पताल, अशोक नगर दिल्ली

 

टेन न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली (07 मई 2023): आज चिकित्सा सेवा एक हेल्थकेयर इंडस्ट्री का रूप ले चुका है। मैंने 1980 से बहुत उतार चढ़ाव देखे हैं, अब आए दिन अस्पताल में मरीजों के झगड़े, मारपीट , बिल को लेकर विवाद संबंधी न्यूज पढ़ने को मिलती हैं। आमजनों और पत्रकारों के द्वारा निरंतर ये सवाल उठाए जाते हैं की क्या चिकित्सक और अस्पताल मरीज की चिकित्सा ईमानदारी पूर्वक कर रहे हैं। तो वहीं दूसरी तरफ डॉक्टर एवं अस्पताल का मानना है कि मरीज का व्यवहार बहुत आक्रमक हो गया है। मामूली बातों पर झगड़ा आम बात हो गई है, मैं इन प्रश्नों के के मूल में जाने का प्रयास करता हूं। 1980 के दशक के पहले ये तीन चीज चेरिटेबल फाउण्डेशन (धर्मार्थ संस्थाओं) द्वारा संचालित कि जाती थी ।

• धर्मशाला
• विद्यालय
• चिकित्सालय

1980 के बाद इन तीनों सेवाओं के स्थान पर बड़े -बड़े आलीशान पांच सितारा टाइप अस्पताल, स्कूल और होटल्स ने ले ली। साल 1983 में पहला कॉरपोरेट अस्पताल अपोलो , मद्रास में खोला गया। उसके बाद इस प्रोफेशन ( पेशे) का ग्लेमराइजेशन व अधिक खर्च की शुरुआत हुई और अब ये व्यवसाय बन गया है। कालंतर में ये सब किसी तरह संचालित हुए और धीरे धीरे पूंजी का जमावड़ा बढ़ता गया और पेशेवर लोगों की महत्ता कम होती गई। जब भी आप किसी व्यवसाय की बात करते हैं तो उसके मूल में एक ही सिद्धांत होता है लाभ अर्जित करना। शिक्षा और स्वास्थ्य लोगों की मूलभूत जरूरतें हैं और सभी लोग अच्छी शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं और उत्तम स्वास्थ सुविधा मुहैया कराना चाहते हैं। इसलिए लोग अब स्कूल और अस्पताल में भी अब फाइव स्टार सुविधाओं की अपेक्षा करने लगे हैं। मेरे विचार से ये दोनों चीज जरूरी है इसमें लग्जरी (विलासिता) की कोई आवश्यकता नहीं है। जनमानस को अच्छी शिक्षा एवं उपचार को महत्व देना चाहिए ना कि इंफ्रास्ट्रक्चर को। क्योंकि जो व्यवसायी आपको ये सुविधाएं मुहैया कराएगा वो इसके बदले में अपना खर्चा भी निकालेगा एवं मुनाफ़ा भी कमाएगा और इसलिए पहले ही दिन से प्रमोटर पैसे की वसूली में लग जाता है।

इन बड़े बड़े स्कूलों और अस्पतालों में पैसे की रिकवरी के तरीकों को समझाने के लिए महंगे महंगे फाइनेंशियल एडवाइजर रखे जाते हैं जो यह बताते हैं कि इन पैसे की रिकवरी कैसे की जाए। इस परिपेक्ष्य में मानवता कहीं पीछे छूटती चली जा रही है। चिकित्सा व्यवस्था आज दोराहो पर खड़ी है जहां एकतरफ मेडिकल के पढ़ाई की मोटी फीस और दूसरी तरफ इन बड़े बड़े अस्पतालों में काम करने की इच्छा। वहीं दूसरी तरफ चेरिटिवल वर्क तथा मानवता को देखते हुए सस्ते उपचार की आवश्यकता है। इन दोनों के बीच चिकित्सकों की भूमिका नगण्य होती जा रही है। क्योंकि एक तरफ चिकित्सकों पर समाज की चमक धमक अधिक से अधिक धन कमाने का लोभ व अस्पतालों का प्रेशर तथा दूसरी तरफ गरीब मजबूर मरीजों की देखरेख करना, ये सभी चीजें चिकित्सक के मन में चलता रहता है। वहीं मरीज विज्ञापन के इस युग में अपने लिए चिकित्सक व अस्पतालों का सही चुनाव करने में परेशान रहता है।

कोरोना महामारी जो कि पूरे विश्व के लिए एक बड़ी प्राकृतिक आपदा थी, जिसमें चिकित्सकों ने आगे बढ़कर अपने जीवन को खतरे में डालते हुए भी मरीजों को आवश्यक चिकत्सा उपलब्ध कराई। इन सबके बावजूद कई अस्पतालों पर अधिक पैसे लेने के आरोप लगे, सरकार ने इसकी जांच कराई और दोषी पाए जाने वाले अस्पतालों को मरीज को पैसे लौटाने के आदेश दिए। अभी भी जांच जारी है लेकिन यह निर्णय समाज को करना है कि कोरोना में अस्पतालों ने अपना उत्तरदायित्व निभाया की नहीं। आए दिन यह खबर आती है कि अस्पतालों ने इलाज एवं अन्य दवाइयों के पैसे अधिक चार्ज किए। हाल में ही अखबार में इस विषय में एक न्यूज आया कि बंबई के अस्पतालों के अधिक पैसे लेने पर नोटिस भी जारी किए गए। इस विषय में सरकार और समाज को सोचना होगा कि अस्पताल अपना खर्च कैसे निकाले व अस्पतालों को परिपक्वता का परिचय देते हुए उचित कार्य प्रणाली अपनानी होगी अन्यथा अविश्वास की खाई बढ़ती जाएगी।

लेखक डॉ वीपी सिंह वर्तमान में धर्मशीला नारायण सुपरस्पेशलिटी अस्पताल, दिल्ली में लेजर, लेप्रोस्कोपिक और सामान्य सर्वेक्षण विभाग में एक वरिष्ठ सलाहकार और एचओडी के रूप में कार्यरत हैं। अपने पांच दशकों के अनुभव में, उन्होंने कई अस्पतालों में चीफ एडमिनिस्ट्रेटर, सीओओ और मेडिकल डायरेक्टर के रूप में भी काम किया है।