नई दिल्ली: 🇮🇳गुरुवार की शाम सात बजे पीएम मोदी ने अपने मंत्रीमंडल के साथ राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में एक भव्य कार्यक्रम में शपथ ग्रहण ली. इस शपथ ग्रहण समारोह में देश-दुनिया से लोग आए थे. कार्यक्रम की भव्यता अपने चरम पर थी. पीएम मोदी कैबिनेट के साथियों के साथ मुख्य मंच पर बैठे थे.
मुख्य मंच से थोड़ी दूरी पर बने दर्शक दीर्घा में NDA के एक प्रमुख सहयोगी, जदयू के सर्वेसर्वा और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बैठे थे और कार्यक्रम देख रहे थे. शपथ ग्रहण समारोह में वो जदयू से राज्यसभा सांसद और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश के साथ पहुंचे थे. नीतीश कुमार कार्यक्रम के दौरान पूरी तरह गंभीर थे. शांत थे. लेकिन थोड़ी देर पहले दिए गए उनके एक बयान ने राजनीतिक दुनिया में हलचल पैदा कर दी है.
कानाफूसी शुरू हो गई. सोशल मीडिया पर पोस्ट आने लगे. इस बात की चर्चा शुरू हो गई कि क्या शपथ ग्रहण से पहले ही NDA की दो प्रमुख पार्टियों में दरार आ गई है? यहां ये याद रहना ज़रूरी है कि अगले साल ही बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं.
इस सवाल पर विचार करने से पहले ये जान लेना ज़रूरी है कि हुआ क्या और नीतीश कुमार ने कहा क्या?
बीजेपी की तरफ़ से जदयू के कोटे से एक सांसद को पीएम मोदी के मंत्रीमंडल में शामिल करने की बात कही गई. नीतीश कुमार ने बीजेपी के इस ऑफ़र को ठुकरा दिया और इस बात कि जानकारी देने के लिए ख़ुद पत्रकारों के सामने आए.
पत्रकारों से बात करते हुए नीतीश कुमार ने कहा, “वो जदयू कोटे से केवल एक मंत्री चाह रहे थे. ये एक तरह का सांकेतिक प्रतिनिधित्व था. इसलिए हमने उन्हें सूचित किया कि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है. हम इससे बिल्कुल दुखी नहीं हैं. हम NDA के साथ मज़बूती से खड़े हैं और इसमें कोई भ्रम नहीं है.”
नीतीश कुमार बिहार ही नहीं देश के एक ऐसे नेता हैं जो कुछ भी बिना सोचे-समझे नहीं बोलते. वो ख़ुद मीडिया के सामने भी गाहे-बगाहे ही आते हैं लेकिन इस मसले पर पिछले 12 घाटों में दो बार वो मीडिया के सामने आ चुके हैं. ऐसे में उनके इस बयान के कई अर्थ निकाले जा रहे हैं.
जनता दल (यू) के सूत्रों के मुताबिक़ नतीजों के बाद जब नीतीश कुमार दिल्ली में अमित शाह और नरेंद्र मोदी से मिले थे तो जदयू कोटे से तीन मंत्रियों के शामिल कराने पर सहमति बनी थी. दो कबिनेट मंत्री और एक राज्य मंत्री. लेकिन जब आख़िर मौक़े पर एक मंत्री के लिए फ़ोन आया तो नीतीश कुमार ने मना कर दिया.
जदयू इसे नीतीश कुमार के जीत के तौर पर देख रही है. पार्टी का तर्क है कि बंपर जीत के बाद NDA के किसी दूसरे नेता में इतना दम नहीं है कि वो अमित शाह या नरेंद्र मोदी की तरफ़ से दिए जा रहे किसी ऑफ़र को सामने से ठुकरा दें. ये केवल नीतीश कुमार कर सकते हैं और उन्होंने किया है.
क्या वाक़ई इसे नीतीश कुमार की जीत के तौर पर देखा जा सकता है? वरिष्ठ पत्रकार और लंबे समय से नीतीश कुमार की राजनीति को देखने-समझने वाले सुरेंद्र किशोर कहते हैं, “निश्चित तौर पर इस फ़ैसले से नीतीश कुमार की छवि एक मज़बूत नेता की बनी है. बीजेपी को चाहिए था कि वो जदयू को एक सम्मानजनक स्थिति में रखें. लेकिन अभी पार्टी नशे में है. ऐसा कैसे हो सकता है कि 6 सीट जीतने वाली लोक जनशक्ति पार्टी को भी एक मंत्रीपद मिले और 16 सीटें जीतने वाली जदयू को भी एक ही मंत्रीपद मिले. मंत्रिमंडल में शामिल न होने का फ़ैसला लेकर नीतीश कुमार ने बताने की कोशिश की है कि वो आज भी बेजेपी को ना कह सकते हैं.”
जानकार मानते हैं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी को अपने दम पर 303 सीटें मिली हैं और केंद्र में उसकी स्थिति बहुत मज़बूत है. ऐसे में अगर वो गठबंधन की पार्टियों को अपने साथ रख रही है तो ये बड़ी बात है. गठबंधन की पार्टियां और नेता इस स्थिति की वजह से ही मोदी और अमित शाह के किसी फ़ैसले को काट नहीं सकते. इस स्थित में भी नीतीश कुमार ‘ना’ कह पा रहे हैं क्योंकि वो जानते हैं कि बिहार में आज भी उनकी स्थिति बीजेपी के मुकाबले मजबूत है.
क्या वाक़ई बिहार में नीतीश कुमार की स्थिति इतनी मज़बूत है कि वो 17 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज करने वाली बीजेपी पर दबाव बना सकते हैं?
पटना में रहने वाले स्वतंत्र पत्रकार पुष्यमित्र की मानें तो आज बिहार में बीजेपी और जदयू एक टक्कर की पार्टी हैं. नीतीश कुमार के वोट में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है और वो आत्मविश्वास से भरे हुए हैं. अगर नीतीश कुमार बीजेपी का ऑफ़र को मान लेते तो वो अपनी स्थिति कमज़ोर कर लेते.
पुष्यमित्र के इस तर्क में दम है क्योंकि 17 सीटें जीतने वाले बीजेपी के पांच सांसद मंत्री बने हैं. 6 सीट जीतने वाले लोक जनशक्ति पार्टी के एक सांसद को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है और 16 सीटें जीतने वाले जदयू के भी एक ही सांसद को मंत्री पद देने की बात हुई जिसे नीतीश कुमार ने नकार दिया.
लेकिन बिहार के वरिष्ठ पत्रकार और द हिंदू के संवाददाता अमरनाथ तिवारी के मुताबिक़ स्थिति दूसरी है और नीतीश कुमार इसमें फंस गए हैं. वो बताते हैं, ‘ देखिए, बीजेपी को मालूम है कि जदयू ने जो 16 सीटें जीती हैं वो अपने दम पर नहीं, नरेंद्र मोदी के नाम पर जीती हैं इसलिए बीजेपी ने नीतीश कुमार को इस बार ज़्यादा भाव नहीं दिया. अब उनके पास कोई विकल्प नहीं है. या तो वो बीजेपी के साथ विधानसभा चुनाव में जाएं या फिर से पलटी मारते हुए आरजेडी के साथ आ जाएं. इसमें नीतीश की मज़बूती नहीं, मजबूरी है.
एक तर्क ये भी दिया जा रहा है कि केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल ना होकर नीतीश कुमार ने केंद्र सरकार की आलोचना करने का विकल्प खुला रखा है. वो चुनाव के आसपास बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग ज़ोर-शोर से उठा सकते हैं. अगर उनका एक सांसद मंत्रिमंडल में शामिल हो जाता तो वो केंद्र सरकार की आलोचना नहीं कर पाते और ना ही कोई मांग ज़ोर-शोर से उठा पाते.
यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार आगामी विधानसभा चुनाव में नए साथी की तलाश कर सकते हैं और कांग्रेस एक विकल्प हो सकती है. सुरेंद्र किशोर इसे कोरी गप्पबाज़ी मानते हैं और कहते हैं, ‘ ऐसी बातें वही लोग कह रहे हैं जिन्हें बिहार की बिलकुल समझ नहीं है. बिहार में कांग्रेस का कोई आधार नहीं है और ऐसे में नीतीश कुमार क्यों कांग्रेस के साथ जाएंगे. वो RJD के साथ जाकर ही बिहार की सत्ता में वापस आ सकते हैं लेकिन आरजेडी के साथ पिछला अनुभव बहुत खराब रहा है.’
भविष्य में क्या होगा वो अभी बहुत साफ़ नहीं है लेकिन इतना साफ़ दिख रहा है कि NDA का प्रमुख सहयोगी दल जदयू के खेमे में सबकुछ ठीक नहीं है. आने वाले दिनों में JDU की तरफ़ से बयानबाज़ी तेज़ हो सकती है और बीजेपी के लिए स्थिति थोड़ी असहज भी हो सकती है.