दीपक श्रीवास्तव
यह देखना सुखद है कि अनेक राज्यों में छोटी-छोटी जातियों में बंटी सामान्य हिन्दू जनता ने सीमाओं को तोड़ते हुए राष्ट्रीय भावना के साथ इस वर्ष लोकतंत्र के महापर्व में अपनी भागीदारी की है तथा राष्ट्र के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास करते हुए उनके संकल्पों को मजबूती प्रदान की है। चुनावी परिणामों से यह स्पष्ट है कि प्रधानमंत्री पर अधिकांश हिंदूओं ने विश्वास किया है किंतु मुस्लिम समुदाय के मत लगभग 1 से 6 प्रतिशत का होने उनके प्रति अविश्वास को दर्शाता है। जब चुनाव की धुरी में राष्ट्रीय विकास, सुरक्षा एवं राष्ट्रीय भावना प्रधान हो, तब एक समुदाय द्वारा अविश्वास भले ही चिंता का विषय न हो किन्तु प्रबल जिज्ञासा का विषय हो जाता है।
हमारे देश की अधिकांश जनता छोटी-छोटी जातियों में बंटी हुई है तथा जाति विशेष के नेतृत्वकर्ताओं के लिए पक्का वोट बैंक रही है। सामान्यता हिंदुओं में राष्ट्र के प्रति भावना व्यक्तिगत भावनाओं से बढ़कर होती है। मेरी बात कुछ व्यक्तियों से हुई जो गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं, जो कभी प्रधानमंत्री की राजनीतिक पार्टी के वोट बैंक नहीं रहे हैं, किन्तु इस वर्ष उन्होंने प्रधानमन्त्री की राष्ट्रभक्ति एवं आतंकवादियों के प्रति कठोर निर्णयों के कारण अपना विश्वास दिखाया।
प्रधानमन्त्री की लोकप्रियता के अनेक अन्य कारण हैं, किन्तु जब सामान्य जनता अपने जननायक के निर्णयों को मजबूत बनाने हेतु स्वयं कष्ट उठाने को तैयार हो, तब परिणामों पर सन्देह करना बेमानी हो जाता है। नोटबंदी इसका सबसे ज्वलन्त उदाहरण है। जिस देश में जनता खरीददारी के साथ मुफ्त मिलने वाली वस्तुओं को कभी नहीं छोड़ती, वहां करोड़ों परिवारों द्वारा गैस सब्सिडी स्वेच्छा से छोड़ देना अपने राष्ट्र के प्रति जनता के संकल्प को दर्शाता है जो पुरानी सरकारों के कार्यकाल में कभी नहीं दिखाई दिया। ऐसी भावना स्वतन्त्र भारत में सिर्फ प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में दिखाई दी है। ऐसा ही उदाहरण युद्धकाल में जापान की जनता ने दर्शाया है जिसके बल पर आज जापान अत्यन्त कम समय में आश्चर्यजनक रूप से विकसित देशों की श्रेणी में खड़ा है।
हमारे देश में मुस्लिम शासन का एक लम्बा समय रहा है, किन्तु यह सत्य है वर्तमान में मुस्लिम समाज अपने स्वर्णिम कालखण्ड से अत्यन्त पीछे हो गया है तथा आज इस समुदाय के अधिकांश लोग गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं। एक ही सामाजिक एवं आर्थिक स्तर वाले हिन्दुओं एवं मुस्लिमों की राष्ट्रीय भावनाओं में अन्तर है। राष्ट्र के नाम जहाँ सम्पूर्ण हिन्दू समाज एकमत हो जाता है वहीँ मुस्लिम समुदाय विभिन्न मतों में बंटा दिखाई देता है। कुछ मुस्लिम राष्ट्रीय भावना को महत्व देते हैं तथा कुछ के लिए परिवार एवं उनका समुदाय राष्ट्रीय हितों से ऊपर हो जाता है। इसके लिए बहुत हद तक उनकी आर्थिक स्थिति जिम्मेदार है। वर्तमान महंगाई के समय में 5-7 हजार रु. कमाने वाले मुस्लिम परिवार में यदि बच्चों की संख्या 5 से अधिक है तो बच्चों की शिक्षा एवं पोषण परिवार के लिए बड़ी चुनौती है अतः परिवार के मुखिया की यह भावना कि “कोई भी शासन करे, हमें तो प्रतिदिन इन्ही परिस्थितियों से दो-चार होना है”, स्वाभाविक है। यह स्थिति कुछ हिन्दू परिवारों में भी है लेकिन उनकी संख्या कम है। ऐसी परिस्थितियों में मुफ्त योजनाओं के प्रति सहज आकर्षण का होना स्वाभाविक है तथा अशिक्षा के कारण उन्हें प्रलोभन देना सरल हो जाता है।
एक कहानी याद आती है – एक बार गौतमबुद्ध के कुछ शिष्य एक भूखे व्यक्ति को ज्ञान देने का प्रयास करते थे तो वह व्यक्ति उन्हें पत्थर मारता था। शिष्य उसे गौतमबुद्ध के पास ले गए, गौतमबुद्ध ने उसे कोई शिखा नहीं दी, केवल भरपेट भोजन कराया तथा उसे जाने दिया। तत्पश्चात उन्होंने अपने शिष्यों से कहा आज यही इसकी शिक्षा थी। बाद में जब उसे शिक्षा दी गयी, तब उसने भक्तिपूर्वक ग्रहण किया। कमोवेश आज गरीबी रेखा से नीचे रह रहे अधिकांश परिवारों की स्थिति ऐसी ही है जिसमे मुस्लिम समुदाय की संख्या सर्वाधिक है। उन्हें राष्ट्रीय धारा से जोड़ने हेतु सकारात्मक प्रयास आवश्यक है जिससे सम्पूर्ण भारत में एक ही राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की जा सकेगी।