स्वतंत्रता सेनानी वीरांगना झलकारी बाई की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में, महिला शाखा दुर्गा दल की सेनापति थीं। वे लक्ष्मीबाई की हमशक्ल भी थीं इस कारण शत्रु को धोखा देने के लिए वे रानी के वेश में भी युद्ध करती थीं। झलकारी झाँसी राज्य के एक बहादुर कृषक सदोवा सिंह की पुत्री थी। झलकारी कोई औपचारिक शिक्षा या स्कूली शिक्षा तो प्राप्त नहीं कर सकी लेकिन उन्होनें खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी के पिता ने डाकुओं के आतंक और उत्पात होते रहने कारण उन्हें शस्त्रं संचालन की शिक्षा दी थी, ताकि वह स्वयं अपनी सुरक्षा का प्रबंध कर सके। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था।
एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। महारानी लक्ष्मीबाई ने उनकी योग्यता, साहस एवं बुद्धिमत्ता परख कर झलकारी को महिला फ़ौज यानि दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था। झलकारी ने थोड़े ही समय में फ़ौज के सभी कार्यों में विशेष दक्षता प्राप्त कर ली।
रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। उस समय रानी लक्ष्मीबाई को अग्रेंजी सेना से घिरता हुआ देख महिलासेना की वीरांगना झलकारी बाई ने बलिदान और राष्ट्रभक्ति की अदभुत मिशाल पेश की थी। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी, अंग्रेज जब झांसी के किले में प्रवेश कर गए तब झलकारी बाई ने रानी से मिलती वेशभूषा धारण कर अंग्रेजों से मोर्चा लिया। इस बीच रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेजों के हाथ न लगने का अवसर मिला और वह सुरक्षित किले से बाहर निकल पायीं। झलकारी बाई ने अपनी वीरता से अंग्रेजों को इतना चकित किया कि वह मान बैठे थे कि युद्ध में उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को मार डाला है लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि उनका डटकर मुकाबला कर वीरगति को प्राप्त हुई वीरांगना लक्ष्मीबाई नहीं बल्कि उनकी हमशक्ल झलकारी बाई थीं। अंग्रेज भी वीरांगना झलकारी बाई की वीरता से इतने भयभीत हो गए थे कि एक ब्रिटिश अफसर ने तब कहा था -“मुझे तो यह स्त्री पगली मालूम पड़ती है।” तब जनरल रोज ने कहा था कि – यदि भारत की एक प्रतिशत नारियाँ इसी प्रकार पागल हो जाएँ तो हम अंग्रेजों को सब कुछ छोड़कर यहाँ से चले जाना होगा। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है –
जा कर रण में ललकारी थी,
वह तो झाँसी की झलकारी थी ।
गोरों से लडना सिखा गई,
है इतिहास में झलक रही,
वह भारत की ही नारी थी ।।
न धर्म रक्षा और न जाति रक्षा, झलकारी ने चूड़ियाँ पहनना छोड़ देश-रक्षा के लिए बन्दूक हाथ में ले ली थी। उसे न महल चाहिए थे, न कीमती जेवर और न रेशमी कपड़े और न दुशाले। वह न तो रानी थी और न ही पटरानी। वह किसी सामन्त की बेटी भी नहीं थी तथा किसी जागीरदार की पत्नी भी नहीं। वह तो गाँव भोजला के एक साधारण कोरी परिवार में पैदा हुई थी और पूरन को ब्याही गयी थी। पिता भी आम परिवार से थे और पति भी, लेकिन देश और समाज के प्रति प्रेम और बलिदान ने उन्होंने इतिहास में खास जगह बनाई थी। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीरांगना झलकारी बाई का महत्त्वपूर्ण प्रसंग हमें1857 के उन स्वतंत्रता सेनानियों की याद दिलाता है, जो इतिहास में भूले-बिसरे हैं। झलकारी बाई ने समर्पित रूप में न सिर्फ रानी लक्ष्मीबाई का साथ दिया बल्कि झाँसी की रक्षा में अंग्रेजों का सामना भी किया। झलकारी बाई दलित-पिछड़े समाज से थीं और निस्वार्थ भाव से देश-सेवा में रहीं। ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों को याद करना हमें जरूरी है। इस नाते भी कि जो जातियाँ उस समय हाशिये पर थीं, उन्होंने समय-समय पर देश पर आई विपत्ति में अपनी जान की परवाह न कर बढ़- चढ़कर साथ दिया। वीरांगना झलकारी बाई स्वतंत्रता सेनानियों की उसी श्रंखला की महत्त्वपूर्ण कड़ी रही हैं।