मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट बचाने और छीनने की कोशिश में गांव-गांव मथा जा रहा है।

एक साल से सत्ता के केन्द्र बने गोरखनाथ मंदिर की परंपरागत सीट गोरखपुर सदर में रोचक और कांटे का घमासान दिख रहा है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सीट बचाने और छीनने की कोशिश में गांव-गांव मथा जा रहा है। यह न्यूनतम शोर-शराबे वाला चुनाव है, जिसमें घर-घर जाकर वोट मांगने पर सभी प्रत्याशी भरोसा कर रहे हैं। सपा प्रत्याशी को बसपा के समर्थन के बाद टक्कर कांटे की है। सपा-बसपा के समझौते से खफा कांग्रेस अपनी प्रत्याशी को लोकसभा भेजने की कोशिश में पूरी ताकत लगा रही है।

उधर मुद्दों के नाम पर सबके हाथ खाली हैं। गोरखपुर में बस योगी की सीट ‘बचाने-छीनने’ का ही मुद्दा है। गोरखपुर की राजनीतिको दशकों से देख रहे सियासी प्रेक्षकों का कहना है कि सबसे बड़ी चुनौती अपने वोटर को बूथ तक भेजने की होगी। जो अपने वोटरों को घर से निकाल कर बूथ तक लाने में जितना कामयाब होगा, वह जीत के उतने ही नजदीक होगा। पिछले लोकसभा चुनाव में गोरखपुर सीट पर मतदान 52.86 प्रतिशत हुआ और योगी आदित्यनाथ 3.12 लाख वोटों के अंतर से जीते थे। माना जा रहा है कि उपचुनाव में मतदान प्रतिशत आमचुनाव की तुलना में कम ही रहता है।
गोरखपुर में पहली बार जातीय मोर्चाबंदी
1989 से लगातार गोरखनाथ मंदिर के कब्जे वाली सदर लोस सीट पर पहली बार जबरदस्त जातीय मोर्चाबंदी देखी जा रही है। अब तक लोगों के मंदिर से जुड़ाव और पीठाधीश्वर के प्रत्याशी होने से अंतत: जातीय सीमाएं टूट जाती थीं। जबरदस्त ध्रुवीकरण होता था। यही वजह है कि पिछले 29 साल से कोई भी दल पीठाधीश्वरों से यह सीट नहीं छीन सका। पिछले 29 साल में पहला मौका है जब पीठाधीश्वर योगी आदित्यनाथ खुद चुनाव मैदान में नहीं हैं। सीट उन्हीं के इस्तीफे से खाली हुई है। भाजपा ने संगठन में क्षेत्रीय मंत्री उपेन्द्रदत्त शुक्ल को प्रत्याशी बनाया है। योगी के लिए चुनाव प्रतिष्ठा का सवाल है। उधर सपा ने जातीय आंकड़ों को देखते हुए निषाद पार्टी के अध्यक्ष के पुत्र को प्रत्याशी बना दिया। निषाद, यादव मुस्लिम वोटबैंक का फायदा लेने को यह दांव चला गया। बाद में बसपा के समर्थन ने इस गठबंधन को मजबूती दी है।